शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

ग़ज़ल (मेरे हमसफ़र )







गज़ल (मेरे हमसफ़र )

मेरे हमनसी मेरे हमसफ़र ,तुझे खोजती है मेरी नजर
तुम्हें हो ख़बर की न हो ख़बर ,मुझे सिर्फ तेरी तलाश है

मेरे साथ तेरा प्यार है ,तो जिंदगी में बहार है
मेरी जिंदगी तेरे दम से है ,इस बात का एहसास  है

तेरे इश्क का है ये असर ,मुझे सुबह शाम की ना  ख़बर
मेरे दिल में तू रहती सदा , तू ना दूर है और ना पास है

ये तो हर किसी का खयाल है ,तेरे रूप की न मिसाल है
कैसें कहूँ  तेरी अहमियत, मेरी जिंदगी में खास है

तेरी झुल्फ जब लहरा गयी , काली घटायें छा गयी
हर पल तुम्हें देखा करू ,आँखों में फिर भी प्यास है

 


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

ग़ज़ल (इनायत)





ग़ज़ल (इनायत)

दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी

शोहरत  की बुलंदी में ,न खुद से हम हुए वाकिफ़ 
गुमनामी में अपनेपन की हिफाज़त हो गयी

मर्ज ऐ  इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में 
अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

देकर दुआएं आज फिर हम पर सितम बो कर गए.
अब जिंदगी जीना , अपने लिए क़यामत हो गयी

दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी

उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 15 जुलाई 2013

गज़ल ( बात अपने दिल की )





गज़ल ( अपने दिल बात)

सोचकर हैरान हैं  हम , क्या हमें अब हो गया है
चैन अब दिल को नहीं है ,नींद क्यों  आती नहीं है

बादियों में भी गये  हम ,शायद आ जाये सुकून
याद उनकी अब हमारे दिल से क्यों  जाती नहीं है

हाल क्या है आज अपना ,कुछ खबर हमको नहीं है 
देखकर मेरी ये हालत  , तरस क्यों खाती नहीं है

चार पल की जिंदगी लग रही सदियों की माफ़िक 
चार पल की जिंदगी क्यों  बीत अब जाती नहीं है

किस तरह कह दे मदन जो बात उन तक पहुंच जाये
बात अपने दिल की क्यों  अब लिखी जाती नहीं है
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

शनिवार, 13 जुलाई 2013

ग़ज़ल (मौका )




ग़ज़ल (मौका )

मिली दौलत ,मिली शोहरत,मिला है मान उसको क्यों 
मौका जानकर अपनी जो बात बदल जाता है .


किसी का दर्द पाने की तमन्ना जब कभी उपजे 
जीने का नजरिया फिर उसका बदल जाता है  ..

चेहरे की हकीकत को समझ जाओ तो अच्छा है
तन्हाई के आलम में ये अक्सर बदल जाता है ...


किसको दोस्त माने हम और किसको गैर कह दें हम 
 जरुरत पर सभी का जब हुलिया बदल जाता है ....

दिल भी यार पागल है ना जाने दीन दुनिया को 
किसी पत्थर की मूरत पर अक्सर मचल जाता है .....

क्या बताएं आपको हम अपने दिल की दास्ताँ 
जितना दर्द मिलता है ये उतना संभल जाता है ......






ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना  

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

ग़ज़ल (ख्बाब)







गज़ल  (ख्बाब)


ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं


कामचोरी, धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं


दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं


अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पौरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं


नाज हमको था कभी पर, आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सारे  ढह गए हैं 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 10 जुलाई 2013

ग़ज़ल (बात करते हैं )






गज़ल (बात करते हैं )

सजाए  मौत  का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधार दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके इक  इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते हैं

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते हैं

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करते हैं

नजरें  जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते हैं

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

ग़ज़ल (चार पल)






ग़ज़ल (चार पल)


प्यार की हर बात से महरूम हो गए आज हम
दर्द की खुशबु भी देखो आ रही है फूल  से

दर्द का तोहफा मिला हमको दोस्ती के नाम पर
दोस्तों के बीच में हम जी रहे थे भूल से

बँट  गयी सारी जमी फिर बँट गया ये आसमान
अब खुदा बँटने  लगा है इस तरह की तूल से

सेक्स की रंगीनियों के आज के इस दौर में
स्वार्थ की तालीम अब मिलने लगी स्कूल से

आगमन नए दौर का आप जिस को कह रहे
आजकल का ये समय भटका हुआ है मूल से

चार पल की जिंदगी में चाँद सांसो का सफ़र
मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से


ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 8 जुलाई 2013

ग़ज़ल (मेरे मालिक मेरे मौला )

 
ग़ज़ल (मेरे मालिक मेरे मौला )
मेरे मालिक मेरे मौला ये क्या दुनिया बनाई है
किसी के पास खाने को  मगर बह खा नहीं पाये 
तेरी दुनियां में कुछ बंदें, करते काम क्यों गंदें
किसी के पास कुछ भी ना, भूखे पेट सो जाये 
जो सीधे सादे रहतें हैं मुश्किल में क्यों रहतें है
तेरी बातोँ को तू जाने, समझ अपनी ना कुछ आये
तुझे पाने की कोशिश में कहाँ कहाँ मैं नहीं घूमा
जब रोता बच्चा मुस्कराता है तू ही तू नजर आये
ना रिश्तों की महक दिखती ना बातोँ में ही दम दीखता
क्यों मायूसी ही मायूसी जिधर देखो नज़र आये 
गुजारिश अपनी सबसे है कि जीयो और जीने दो
ये जीवन कुछ पलों का है पता कब मौत आ जाये
मेरे मालिक मेरे मौला ये क्या दुनिया बनाई है
किसी के पास खाने को  मगर बह खा नहीं पाये
ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

ग़ज़ल (कुदरत)




 
गज़ल (कुदरत)


क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है.
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में ..

एक जमी बक्शी थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में

आज नजर आती मायूसी मानबता के चहेरे पर
अपराधी को सरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना