गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल (मन करता है)

ग़ज़ल(मन करता है)


लल्लू पंजू पप्पू फेंकू रबड़ी को अब देख देख कर
अब मेरा  भी राजनीती में  मन आने को करता है

सच्ची बातें खरी खरी अब किसको अच्छी लगती हैं
चिकनी चिपुडी बातों से मन बहलाने को करता है

रुखा  सूखा गन्दा पानी पीकर कैसे रह लेते थे
इफ्तार में मुर्गा ,बिरयानी मन खाने को  करता है

हिन्दू जाता मंदिर में और मुस्लिम जाता मस्जिद में
मुझको बोट जहाँ पर मिल जाए, मन जाने को  करता है

मेरी मर्जी मेरी इच्छा जैसा चाहूँ  बैसा कर दूँ
जो बिरोध में आये उसको, मन निपटाने को  करता है

ग़ज़ल प्रस्तुति
मदन मोहन सक्सेना


बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल( ऐतबार)




ग़ज़ल( ऐतबार)

जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जखम हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के एहसास  से जब जब रहे हम बेखबर
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राजे दिल का बह  जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इनकार  हो तो इकरार से है बो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 30 सितंबर 2013

ग़ज़ल (बोल)


गज़ल  (बोल)


उसे हम बोल क्या बोलें जो दिल को दर्द दे जाये
सुकूं दे चैन दे दिल को , उसी को बोल बोलेंगें

जीवन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
राज ए दिल मोहब्बत के, उसी से यार खोलेंगें 

जब अपनों से और गैरों से मिलते हाथ सबसे हों
किया जिसने भी जैसा है , उसी से यार तोलेंगें

अपना क्या, हम तो बस, पानी की ही माफिक हैं
 मिलेगा प्यार से हमसे ,उसी  के यार होलेंगें

जितना हो जरुरी ऱब, मुझे उतनी रोशनी देना 
अँधेरे में भी डोलेंगें उजालें में भी डोलेंगें
 
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

ग़ज़ल (मौका)







ग़ज़ल (मौका)

गजब दुनिया बनाई है, गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर बह  नहीं सोते 

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं
नहीं है पास में बिस्तर ,बह  नींदें चैन की सोते 

किसी के पास फुर्सत है,  फुर्सत ही रहा करती 
इच्छा है कुछ करने की,  पर मौके ही नहीं होते 

जिसे मौका दिया हमने  , कुछ न कुछ करेगा बह 
किया कुछ भी नहीं ,किन्तु   सपने रोज बह  बोते 

आज  रोता नहीं है
कोई भी  किसी और  के लिए
सब अपनी अपनी किस्मत को ले लेकर खूब रोते


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 18 सितंबर 2013

ग़ज़ल ( सेक्युलर कम्युनल )


 
गज़ल ( सेक्युलर कम्युनल )

 
जब से बेटे जबान हो गए 
मुश्किल में क्यों प्राण हो गए 

किस्से सुन सुन के संतों के 
भगवन भी हैरान हो गए 

आ धमके कुछ ख़ास बिदेशी 
घर बाले मेहमान हो गए 

सेक्युलर कम्युनल के चक्कर में 
गाँव गली शमसान हो गए 

कैसा दौर चला है अब ये 
सदन कुश्ती के मैदान हो गए 

बिन माँगें सब राय  दे दिए 
कितनों के अहसान हो गए



प्रस्तुति:

मदन मोहन सक्सेना 



मंगलवार, 10 सितंबर 2013

ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)







ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)


नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं  आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह दूरियाँ आकाश की

इस कदर भटकें हैं युबा आज के  इस दौर में
खोजने से मिलती नहीं अब गोलियां सल्फ़ास की

आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की

बँट  गयी सारी जमी ,फिर बँट  गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की

हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
अब हर कोई कहने लगा है  आरजू बनवास की

मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी दुनिया, है बिरोधाभास की

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

ग़ज़ल (खेल जिंदगी)








गज़ल  (खेल जिंदगी)

दिल के पास है  लेकिन निगाहों से बह ओझल हैं
क्यों असुओं से भिगोने का है खेल जिंदगी। 


जिनके साथ रहना हैं ,नहीं मिलते क्यों दिल उनसे
खट्टी मीठी यादों को संजोने का ,है खेल जिंदगी।

 
किसी के खो गए अपने, किसी ने पा लिए सपनें
क्या पाने और खोने का ,है खेल जिंदगी।


उम्र बीती और ढोया है, सांसों के जनाजे को
जीवन सफर में हँसने रोने का, है  खेल जिंदगी।


किसी को मिल गयी दौलत, कोई तो पा गया शोहरत
मदन बोले , काटने और बोने का ये खेल जिंदगी।

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

ग़ज़ल (बहुत मुश्किल )






गज़ल  (बहुत मुश्किल )

अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल
  
ख्वाबों और यादों की गली में उम्र गुजारी है
समय के साथ दुनिया में है रह पाना बहुत मुश्किल

कहने को तो कह लेते है अपनी बात सबसे हम
जुबां से दिल की बातों को है कह पाना बहुत मुश्किल

ज़माने से मिली ठोकर तो अपना हौसला बढता
अपनों से मिली ठोकर तो सह पाना बहुत मुश्किल

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है
क्या खोया और क्या पाया कह पाना बहुत मुश्किल

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 19 अगस्त 2013

ग़ज़ल( ये कल की बात है )





ग़ज़ल( ये कल की बात है )

उनको तो हमसे प्यार है ये कल की बात है
कायम ये ऐतबार था ये कल की बात है

जब से मिली नज़र तो चलता नहीं है बस
मुझे दिल पर अख्तियार था ये कल की बात है

अब फूल भी खिलने लगा है निगाहों में
काँटों से मुझको प्यार था ये कल की बात है

अब जिनकी बेबफ़ाई के चर्चे हैं हर तरफ
बह पहले बफादार थे ये कल की बात है

जिसने लगायी आग मेरे घर में आकर के
बह शख्श मेरा यार था ये कल की बात है

तन्हाईयों का गम ,जो मुझे दे दिया उन्होनें
बह मेरा गम बेशुमार था ये कल की बात है



ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना



गुरुवार, 1 अगस्त 2013

ग़ज़ल (हार-जीत)






ग़ज़ल (हार-जीत)

पाने को आतुर रहतें हैं  खोने को तैयार नहीं है
जिम्मेदारी ने
मुहँ मोड़ा ,सुबिधाओं की जीत हो रही

साझा करने को ना मिलता , अपने गम में ग़मगीन हैं
स्वार्थ दिखा जिसमें भी यारों उससे केवल प्रीत हो रही

कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी  है
जैसा देखा बैसी बातें  .जग की अब ये रीत हो रही

अब खेलों  में है  राजनीति और राजनीति ब्यापार हुई
मुश्किल अब है मालूम होना ,किस से किसकी मीत हो रही

क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में
संग साथ की हार हुई और  तन्हाई की जीत हो रही


ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना