मंगलवार, 12 नवंबर 2013

ग़ज़ल ( जिंदगी का सफ़र)










ग़ज़ल ( जिंदगी का सफ़र)


बीती उम्र कुछ इस तरह कि खुद से हम न मिल सके
जिंदगी का ये सफ़र क्यों इस कदर अंजान है


प्यासा पथिक और पास में बहता समुन्द्र देखकर
जिंदगी क्या है मदन , कुछ कुछ हुयी पहचान है

 
कल तलक लगता था हमको शहर ये जाना हुआ
इक शख्श अब दीखता नहीं तो शहर ये बीरान है 


इक दर्द का एहसास हमको हर समय मिलता रहा
ये बक्त की साजिश है या फिर बक्त का एहसान है


गर कहोगें दिन को दिन तो लोग जानेगें गुनाह
अब आज के इस दौर में दिखते नहीं इन्सान है


गैर बनकर पेश आते, बक्त पर अपने ही लोग
अपनो की पहचान करना अब नहीं आसान है





प्रस्तुति:
ग़ज़ल ( जिंदगी का ये सफ़र)
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

गज़ल (रचना )




 गज़ल (रचना )


कभी गर्दिशों  से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ

इस आस में बीती उम्र कोई हमें  अपना कहे
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ

जिस  रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आँखों से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ
 

इस कदर अन्जान हैं हम आज अपने हाल से
लोग अब कहने लगे कि शख्श  बेगाना हुआ


ढल नहीं जाते हैं  लब्ज ऐसे ही रचना में  कभी
गीत उनसे मिल गया कभी ग़ज़ल का पाना हुआ

प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल (खेल देखिये)





ग़ज़ल (खेल देखिये)



साम्प्रदायिक कहकर जिससे  दूर दूर रहते थे 
राजनीती में कोई  अछूत नहीं ,ये खेल देखिये 

दूध मंहगा प्याज मंहगा और जीना मंहगा हो गया 
छोड़ दो गाड़ी से जाना ,मँहगा अब तेल देखिये

कल तलक थे साथ जिसके, आज उससे दूर हैं 
सेक्युलर कम्युनल का ऐसा घालमेल देखिये 

हो गए कैसे चलन अब आजकल गुरूओं  के यार 
मिलते नहीं बह आश्रम में ,अब  जेल देखिये

बात करते हैं सभी क्यों आज कल जनता की लोग 
देखना है गर उन्हें ,साधारण दर्जें की रेल देखिये 


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल ( खुदा का रूप )







ग़ज़ल ( खुदा का रूप )

गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे  जिस तरह से यार है

संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सौ  बेकार हैं 

सोचते है जब कभी हम  क्या मिला क्या खो गया 
दिल जिगर साँसें  है अपनी  पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते हैं  हम 
प्यार से बह  दर्द दे दें  तो हमें  स्वीकार है 

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह  खुशबु मिली है 
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है 

ये ख्बाहिश अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे 
क्या मदन इसको ही कहते लोग अक्सर प्यार हैं

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल ( सच्चा झूठा)

 






ग़ज़ल ( सच्चा झूठा)

क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक जमी वख्शी   थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानबता के चहेरे पर  
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल (मन करता है)

ग़ज़ल(मन करता है)


लल्लू पंजू पप्पू फेंकू रबड़ी को अब देख देख कर
अब मेरा  भी राजनीती में  मन आने को करता है

सच्ची बातें खरी खरी अब किसको अच्छी लगती हैं
चिकनी चिपुडी बातों से मन बहलाने को करता है

रुखा  सूखा गन्दा पानी पीकर कैसे रह लेते थे
इफ्तार में मुर्गा ,बिरयानी मन खाने को  करता है

हिन्दू जाता मंदिर में और मुस्लिम जाता मस्जिद में
मुझको बोट जहाँ पर मिल जाए, मन जाने को  करता है

मेरी मर्जी मेरी इच्छा जैसा चाहूँ  बैसा कर दूँ
जो बिरोध में आये उसको, मन निपटाने को  करता है

ग़ज़ल प्रस्तुति
मदन मोहन सक्सेना


बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल( ऐतबार)




ग़ज़ल( ऐतबार)

जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जखम हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के एहसास  से जब जब रहे हम बेखबर
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राजे दिल का बह  जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इनकार  हो तो इकरार से है बो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 30 सितंबर 2013

ग़ज़ल (बोल)


गज़ल  (बोल)


उसे हम बोल क्या बोलें जो दिल को दर्द दे जाये
सुकूं दे चैन दे दिल को , उसी को बोल बोलेंगें

जीवन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
राज ए दिल मोहब्बत के, उसी से यार खोलेंगें 

जब अपनों से और गैरों से मिलते हाथ सबसे हों
किया जिसने भी जैसा है , उसी से यार तोलेंगें

अपना क्या, हम तो बस, पानी की ही माफिक हैं
 मिलेगा प्यार से हमसे ,उसी  के यार होलेंगें

जितना हो जरुरी ऱब, मुझे उतनी रोशनी देना 
अँधेरे में भी डोलेंगें उजालें में भी डोलेंगें
 
ग़ज़ल
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

ग़ज़ल (मौका)







ग़ज़ल (मौका)

गजब दुनिया बनाई है, गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर बह  नहीं सोते 

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं
नहीं है पास में बिस्तर ,बह  नींदें चैन की सोते 

किसी के पास फुर्सत है,  फुर्सत ही रहा करती 
इच्छा है कुछ करने की,  पर मौके ही नहीं होते 

जिसे मौका दिया हमने  , कुछ न कुछ करेगा बह 
किया कुछ भी नहीं ,किन्तु   सपने रोज बह  बोते 

आज  रोता नहीं है
कोई भी  किसी और  के लिए
सब अपनी अपनी किस्मत को ले लेकर खूब रोते


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 18 सितंबर 2013

ग़ज़ल ( सेक्युलर कम्युनल )


 
गज़ल ( सेक्युलर कम्युनल )

 
जब से बेटे जबान हो गए 
मुश्किल में क्यों प्राण हो गए 

किस्से सुन सुन के संतों के 
भगवन भी हैरान हो गए 

आ धमके कुछ ख़ास बिदेशी 
घर बाले मेहमान हो गए 

सेक्युलर कम्युनल के चक्कर में 
गाँव गली शमसान हो गए 

कैसा दौर चला है अब ये 
सदन कुश्ती के मैदान हो गए 

बिन माँगें सब राय  दे दिए 
कितनों के अहसान हो गए



प्रस्तुति:

मदन मोहन सक्सेना