सोमवार, 11 दिसंबर 2017

ग़ज़ल (आज के हालात )



आज के हालात में किस किस से हम शिकवा करें
हो रही अपनों से क्यों आज यारों  जंग है

खून भी पानी की माफिक बिक रहा बाजार में
नाम से पहचान होती किसमें किसका रंग है

सत्य की सुंदर गली में मन नहीं लगता है अब
जा नहीं सकते है उसमें ये तो काफी तंग है

देखकर दुशमन भी कहते क्या करे हम आपका
एक तो पहले से घायल गल चुके सब अंग है

बँट  गए है आज हम इस तरह से देखिये
हर तरफ आबाज आती क्या अजीव संग है

जुल्म की हर दास्ताँ  खामोश होकर सह चुके
ब्यक्त करने का मदन ये क्या अजीव ढंग  है

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 7 सितंबर 2017

ग़ज़ल (मगर आने से पहले कुछ इशारे भी किये होते)







ग़ज़ल (मगर  आने  से  पहले  कुछ  इशारे  भी  किये  होते)

किसी   के  दिल  में चुपके  से  रह  लेना  तो  जायज  है
मगर  आने  से  पहले  कुछ  इशारे  भी  किये  होते। 

नज़रों  से मिली नजरें  तो नज़रों में बसी सूरत  
काश हमको उस खुदाई के नजारे  भी दिए होते।

अपना हमसफ़र जाना ,इबादत भी करी जिनकी 
चलते  दो कदम संग में , सहारे भी दिए होते।

जीने का नजरिया फिर अपना कुछ अलग होता  
गर अपनी जिंदगी के गम , सारे दे दिए होते।

दिल को भी जला लेते ख्बाबों को जलाते  हम 
गर मुहब्बत में अँधेरे के इशारे जो किये होते।


मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

ग़ज़ल (मौसम से बदलते हैं रिश्ते इस शहर में आजकल )



इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर 
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है 

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर 
दोस्ती ,प्रेम ,ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है 

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में 
इस शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

इस शहर  में हर तरफ भीड़ है ,बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है 

मौसम से बदलते हैं  रिश्ते इस शहर में आजकल 
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है 



ग़ज़ल (मौसम से बदलते हैं  रिश्ते इस शहर में आजकल  )

मदन मोहन सक्सेना









बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल (रिश्तों के कोलाहल में ये जीवन ऐसे चलता है )







किस की कुर्वानी को किसने याद रखा है दुनियाँ में 
जलता तेल औ बाती है कहतें दीपक जलता है 

पथ में काँटें लाख  बिछे हो मंजिल मिल जाती है उसको 
बिन भटके जो इधर उधर ,राह  पर अपनी चलता है

मिली दौलत मिली शोहरत मिला है यार  कुछ क्यों 
जैसा मौका बैसी बातें ,जो पल पल बात बदलता है 

छोड़ गया जो पत्थर दिल ,जिसने दिल को दर्द दिया है 
दिल भी कितना पागल है  ये उसके लिए मचलता है 

रिश्तों को ,दो पल गए बनाने में औ दो पल गए निभाने में 
"मदन " रिश्तों के कोलाहल में ये जीवन ऐसे  चलता है 


ग़ज़ल (रिश्तों के कोलाहल में ये जीवन ऐसे  चलता है )
मदन मोहन सक्सेना 


बुधवार, 14 सितंबर 2016

ग़ज़ल ( सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है)





कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन
दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीबन है

ना रिश्तों की ही कीमत है ना नातें अहमियत रखतें
रिश्तें हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है

सियासत में नहीं  युबा , बुढ़ापा काम पा जाता
समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है

सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है
सच्ची  बात सुनने को ब्याकुल ये  हुआ मन है

जीबन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
"मदन " साँसें जिंदगी अपनी उसका ही तो दर्पण है 



ग़ज़ल ( सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है)
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 7 अगस्त 2016

ग़ज़ल (रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है )





  



मुसीबत यार अच्छी है पता तो यार चलता है 
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है 

किसकी कुर्बानी को किसने याद रक्खा है दुनियाँ  में 
जलता तेल और बाती है कहते दीपक जलता है 

मुहब्बत को बयाँ करना किसके यार बश में है 
उसकी यादों का दिया अपने दिल में यार जलता है 

बैसे जीवन के सफर में तो कितने लोग मिलते हैं 
किसी चेहरे पे अपना  दिल  अभी भी तो मचलता है

समय के साथ बहने का मजा कुछ और है यारों 
रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है 
 
मुसीबत "मदन " अच्छी है पता तो यार चलता है 
कैसे कौन कब कितना,  रंग अपना बदलता है

ग़ज़ल (रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है )

मदन मोहन सक्सेना
















मंगलवार, 19 जुलाई 2016

ग़ज़ल (आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है )





पैसोँ की ललक  देखो दिन कैसे दिखाती है 
उधर माँ बाप तन्हा  हैं इधर बेटा अकेला है 

रुपये पैसोँ की कीमत को वह ही जान सकता है 
बचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला  है

अपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारों 
समय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है 

हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है 
तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों  का मेला है 

समय अच्छा बुरा होता ,नहीं हैं दोष इंसान का 
बहुत मुश्किल है ये कहना  किसने खेल खेला है 

जियो  ऐसे कि हर इक पल ,मानो आख़िरी पल है 
आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है

ग़ज़ल  (आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है )
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 22 जून 2016

गज़ल (समय ये आ गया कैसा )





गज़ल (समय ये आ गया कैसा )

दीवारें ही दीवारें , नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले हैं

उलझन आज दिल में है कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं

जिसे देखो बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं

जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है

मिलता अब समय ना है
, समय ये आ गया कैसा
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं



मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 8 जून 2016

ग़ज़ल ( मम्मी तुमको क्या मालूम )




ग़ज़ल ( मम्मी तुमको क्या मालूम )

सुबह सुबह अफ़रा तफ़री में फ़ास्ट फ़ूड दे देती माँ तुम
टीचर क्या क्या देती ताने , मम्मी तुमको क्या मालूम

क्या क्या रूप बना कर आती ,मम्मी तुम जब लेने आती
लोग कैसे किस्से लगे सुनाने , मम्मी तुमको क्या मालूम

रोज पापा जाते पैसा पाने , मम्मी तुम घर लगी सजाने
पूरी कोशिश से पढ़ते हम , मम्मी तुमको क्या मालूम

घर मंदिर है ,मालूम तुमको पापा को भी मालूम है जब
झगड़े में क्या बच्चे पाएं , मम्मी तुमको क्या मालूम

क्यों इतना प्यार जताती हो , मुझको कमजोर बनाती हो
दूनियाँ बहुत ही जालिम है , मम्मी तुमको क्या मालूम

 


ग़ज़ल ( मम्मी तुमको क्या मालूम )
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 10 मई 2016

ग़ज़ल(मुहब्बत)






नजर फ़ेर ली है खफ़ा हो गया हूँ
बिछुड़ कर किसी से जुदा हो गया हूँ
 
मैं किससे करूँ बेबफाई का शिकबा
कि खुद रूठकर बेबफ़ा हो गया हूँ 
 
बहुत उसने चाहा बहुत उसने पूजा
 मुहब्बत का मैं देवता हो गया हूँ 
 
बसायी थी जिसने दिलों में मुहब्बत
उसी के लिए क्यों बुरा हो गया हूँ 
 
मेरा नाम अब क्यों तेरे लब पर भी आये
अब मैं अपना नहीं दूसरा हो गया हूँ 
 
मदन सुनाऊँ किसे अब किस्सा ए गम 
मुहब्बत में मिटकर फना हो गया हूँ . 

ग़ज़ल(मुहब्बत)  

मदन मोहन सक्सेना