गुरुवार, 30 जुलाई 2015

ग़ज़ल ( सपने सजाने लगा आजकल हूँ)




 सपने सजाने लगा आजकल हूँ
मिलने मिलाने लगा आज कल हूँ
हुयी शख्शियत उनकी मुझ पर हाबी
खुद को भुलाने लगा आजकल हूँ

इधर तन्हा मैं था उधर तुम अकेले
किस्मत ,समय ने क्या खेल खेले
गीत ग़ज़लों की गंगा तुमसे ही पाई
गीत ग़ज़लों को गाने लगा आजकल हूँ

जिधर देखता हूँ उधर तू मिला है
ये रंगीनियों का गज़ब सिलसिला है
नाज क्यों ना मुझे अपने जीवन पर हो
तुमसे रब को पाने लगा आजकल हूँ

सपने सजाने लगा आजकल हूँ
मिलने मिलाने लगा आज कल हूँ
हुयी शख्शियत उनकी मुझ पर यूँ हाबी
खुद को भुलाने लगा आजकल हूँ



ग़ज़ल ( सपने सजाने लगा आजकल हूँ)
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 27 जुलाई 2015

ग़ज़ल (जीबन :एक बुलबुला )



 ग़ज़ल (जीबन :एक बुलबुला )

गज़ब हैं रंग जीबन के गजब किस्से लगा करते 
जबानी जब  कदम चूमे बचपन छूट जाता है 

बंगला  ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में 
सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है 

जबानी के नशें में लोग  क्या क्या ना किया करते 
ढलते ही जबानी के  बुढ़ापा टूट जाता है 

समय के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है 
समय को गर नहीं समझे  समय फिर रूठ जाता है 

जियो ऐसे कि औरों को भी जीने का मजा आये 
मदन ,जीबन क्या ,बुलबुला है, आखिर फुट जाता है



मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

ग़ज़ल ( दिल की बातें)



ग़ज़ल (  दिल की बातें)



जिनका प्यार पाने में हमको ज़माने लगे
बह  अब नजरें मिला के   मुस्कराने लगे

राज दिल का कभी जो छिपाते थे हमसे
बातें  दिल की हमें बह बताने  लगे 

अपना बनाने को  सोचा  था जिनको
बह अपना हमें अब   बनाने लगे

जिनको देखे बिना आँखे रहती थी प्यासी
बह अब नजरों से हमको पिलाने लगे

जब जब देखा उन्हें उनसे नजरें मिली
गीत हमसे खुद ब खुद बन जाने लगे

प्यार पाकर के जबसे प्यारी दुनिया रचाई
क्यों हम दुनिया को तब से भुलाने लगे

गीत ग़ज़ल जिसने भी मेरे देखे या सुने
तब से शायर बह हमको बताने लगे

हाल देखा मेरा तो दुनिया बाले ये बोले
मदन हमको तो दुनिया से बेगाने लगे


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

शनिवार, 4 जुलाई 2015

ग़ज़ल(दूर रह कर हमेशा हुए फासले )






 ग़ज़ल(दूर रह कर हमेशा हुए फासले )


दूर रह कर हमेशा हुए फासले ,चाहें रिश्तें कितने क़रीबी  क्यों ना हों
कर लिए बहुत काम लेन देन  के ,विन  मतलब कभी तो जाया करो

पद पैसे की इच्छा बुरी तो नहीं मार डालो जमीर कहाँ ये सही
जैसा देखेंगे बच्चे वही सीखेंगें ,पैर अपने माँ बाप के भी दबाया करो

काला कौआ भी है काली कोयल भी है ,कोयल सभी को भाती  क्यों है
सुकूँ दे चैन दे दिल को ,अपने मुहँ में ऐसे ही अल्फ़ाज़ लाया करो

जब सँघर्ष है तब ही  मँजिल मिले ,सब कुछ सुबिधा नहीं यार जीबन में है
जिस गली जिस शहर में चला सीखना , दर्द उसके मिटाने भी जाया करो

यार जो भी करो तुम सँभल करो ,  सर उठे गर्व से ना झुके शर्म से
वक़्त रुकता है किसके लिए ये "मदन" वक़्त ऐसे ही अपना ना जाया करो



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 1 जुलाई 2015

ग़ज़ल (अपनी जिंदगी)

ग़ज़ल (अपनी जिंदगी)

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं 

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 22 जून 2015

गज़ल (शून्यता)



 
गज़ल (शून्यता)

जिसे चाहा उसे छीना , जो पाया है सहेजा है 
उम्र बीती है लेने में ,मगर फिर शून्यता क्यों हैं 


सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना
देने में ख़ुशी जो है, कोई बिरला  सीखता क्यों है  

कहने को तो , आँखों से नजर आता सभी को है 
अक्सर प्यार में ,मन से मुझे फिर दीखता क्यों है 

दिल भी यार पागल है ,ना जाने दीन दुनिया को 
दिल से दिल की बातों पर आखिर रीझता क्यों है

आबाजों की महफ़िल में दिल की कौन सुनता है 
सही चुपचाप  रहता है और झूठा चीखता क्यों है 


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 15 जून 2015

ग़ज़ल (किस को गैर कहदे हम)





ग़ज़ल (किस को गैर कहदे हम)


दुनिया में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बह रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे हैं  दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलों से
शिकायत सबको उनसे है कि  उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्वावों   में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्वावों में हम उनके साथ रहते हैं 
मुश्किल अपनी ये है कि  हकीक़त में नहीं मिलते



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 5 जून 2015

ग़ज़ल (क्यों हर कोई परेशां है)


ग़ज़ल (क्यों हर कोई परेशां है)

दिल के पास है लेकिन निगाहों से जो ओझल है
ख्बाबों में अक्सर वह हमारे पास आती है

अपनों संग समय गुजरे इससे बेहतर क्या होगा
कोई तन्हा रहना नहीं चाहें मजबूरी बनाती है

किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है
बिना मेहनत के मंजिल कब किसके हाथ आती है

क्यों हर कोई परेशां है बगल बाले की किस्मत से
दशा कैसी भी अपनी हो किसको रास आती है

दिल की बात दिल में ही दफ़न कर लो तो अच्छा है
पत्थर दिल ज़माने में कहीं ये बात भाती है

भरोसा खुद पर करके जो समय की नब्ज़ को जानें
"मदन " हताशा और नाकामी उनसे दूर जाती है


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 26 मई 2015

ग़ज़ल (ऐतवार)







ग़ज़ल (ऐतवार)

बोलेंगे  जो  भी  हमसे  बह  ,हम ऐतवार कर  लेगें 
जो कुछ  भी उनको प्यारा  है ,हम उनसे प्यार कर  लेगें 

बह मेरे पास आयेंगे ये सुनकर के ही  सपनो  में 
क़यामत  से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें 

मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें

जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है 
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें 

हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बह  हमको 
गर  अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 22 मई 2015

ग़ज़ल (ये रिश्तें)








ग़ज़ल (ये रिश्तें)

ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटे 
बिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुम 

जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों  मीठी बात करता है
सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम 

हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में 
जीबन के सफ़र में जो उन्हें अपना बना लो तुम 

सियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता की
अपनी बात कैसे भी उनसे तुम बता लो तुम

अगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना है 
मदन अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुम


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना