गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

ग़ज़ल ( जिंदगी जिंदगी)







 ग़ज़ल ( जिंदगी जिंदगी)

तुझे पा लिया है जग पा लिया है 
अब दिल में समाने लगी जिंदगी है 

कभी गर्दिशों की कहानी लगी थी 
मगर आज भाने लगी जिंदगी है 

समय कैसे जाता समझ मैं ना पाता 
अब समय को चुराने लगी जिंदगी है 

कभी ख्बाब में तू हमारे थी आती 
अब सपने सजाने लगी जिंदगी है 

तेरे प्यार का ये असर हो गया है 
अब मिलने मिलाने लगी जिंदगी है 

मैं खुद को भुलाता, तू खुद को भुलाती
अब खुद को भुलाने लगी जिंदगी है 



ग़ज़ल ( जिंदगी जिंदगी)
मदन मोहन सक्सेना













2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-04-2015) को "आदमी को हवस ही खाने लगी" (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    मगर इस ग़ज़ल में मक्ता कहाँ है मित्र!
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. अतीव सुन्दर ,,,,,,,,,,,,, वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह

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