ग़ज़ल (सबकी ऐसे गुजर गयी) हिन्दू देखे ,मुस्लिम देखे इन्सां देख नहीं पाया मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में आते जाते उम्र गयी अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में हर इन्सां की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी अपना हिस्सा पाने को ही सब घर में मशगूल दिखे इक कोने में माँ दुबकी थी , जब मेरी बहाँ नजर गयी दुनिया जब मेरी बदली तो बदले बदले यार दिखे तेरी इकजैसी सच्ची सूरत, दिल में मेरे उतर गयी
किसको आज फुर्सत है किसी की बात सुनने की अपने ख्बाबों और ख़यालों में सभी मशगूल दिखतें हैं सबक क्या क्या सिखाता है जीबन का सफ़र यारों मुश्किल में बहुत मुश्किल से अपने दोस्त दिखतें हैं क्यों सच्ची और दिल की बात ख़बरों में नहीं दिखती नहीं लेना हक़ीक़त से क्यों मन से आज लिखतें हैं धर्म देखो कर्म देखो असर दीखता है पैसों का भरोसा हो तो किस पर हो सभी इक जैसे दिखतें हैं सियासत में न इज्ज़त की ,न मेहनत की कद्र यारों सुहाने स्वप्न और ज़ज्बात यहाँ हर रोज बिकते हैं दुनियाँ में जिधर देखो हज़ारों रास्ते दीखते मंजिल जिनसे मिल जाये वह रास्ते नहीं मिलते