ग़ज़ल (इनायत)
दुनिया बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी
शोहरत की बुलंदी में ,न खुद से हम हुए वाकिफ़
गुमनामी में अपनेपन की हिफाज़त हो गयी
मर्ज ऐ इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में
अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी
देकर दुआएं आज फिर हम पर सितम बो कर गए.
अब जिंदगी जीना , अपने लिए क़यामत हो गयी
दुनिया बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी
ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना
भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंशुभकामनाऎं !
जवाब देंहटाएंसुंदर !
'शोहरत की बुलंदी में ,न खुद से हम हुए वाकिफ़
जवाब देंहटाएंगुमनामी में अपनेपन की हिफाज़त हो गयी.'
-गुमनामी की भी अपनी सुविधाएँ हैं -ठीक कहा आपने .
वाह वाह बहुत खूब सर सुन्दर
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