सोमवार, 22 जुलाई 2013

ग़ज़ल ( आगमन )







गज़ल  ( आगमन नए दौर )


आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बह  सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालात में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चंद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते कि  बेचना जमीर है


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

14 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया है आदरणीय-
    अनुसरण कर रहा हूँ-

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  2. बहुत उम्दा!
    हिन्दी ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है!

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  3. बहुत खुबसूरत गजल लिखा है..आपका स्वागत है!

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  4. बहुत सामयिक विषय पर सुन्दर प्रस्तुति ।

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  5. आज के हालात में किस किस से हम बचकर चले
    प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है !!!
    वाह वाह क्या कहने
    बढ़िया गजल !!

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