सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल ( सच्चा झूठा)

 






ग़ज़ल ( सच्चा झूठा)

क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक जमी वख्शी   थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानबता के चहेरे पर  
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (15-10-2013) "रावण जिंदा रह गया..!" (मंगलवासरीय चर्चाःअंक1399) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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