सोमवार, 15 जून 2015

ग़ज़ल (किस को गैर कहदे हम)





ग़ज़ल (किस को गैर कहदे हम)


दुनिया में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बह रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे हैं  दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलों से
शिकायत सबको उनसे है कि  उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्वावों   में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्वावों में हम उनके साथ रहते हैं 
मुश्किल अपनी ये है कि  हकीक़त में नहीं मिलते



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-06-2015) को "घर में पहचान, महानों में महान" {चर्चा अंक-2008} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. वाह बेहतरीन प्रस्तुति.
    मेरे ब्लॉग पर आपका इंतज़ार रहेगा.
    http://iwillrocknow.blogspot.in/

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  3. करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलों से
    शिकायत सबको उनसे है कि उनके लब नहीं हिलते
    क्या बात है बहुत ही अच्छी गज़ल

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  4. कुछ तलाश ज्यादा होती है पर मंजिल जरूर मिल्लती है ... अच्छी ग़ज़ल ...

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  5. एक अच्छी गज़ल से रूबरू करवाने के लिए आभार

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