बुधवार, 1 जुलाई 2015

ग़ज़ल (अपनी जिंदगी)

ग़ज़ल (अपनी जिंदगी)

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं 

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

1 टिप्पणी:

  1. ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
    जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं

    बहुत खूब.......

    जवाब देंहटाएं