गुरुवार, 30 जुलाई 2015

ग़ज़ल ( सपने सजाने लगा आजकल हूँ)




 सपने सजाने लगा आजकल हूँ
मिलने मिलाने लगा आज कल हूँ
हुयी शख्शियत उनकी मुझ पर हाबी
खुद को भुलाने लगा आजकल हूँ

इधर तन्हा मैं था उधर तुम अकेले
किस्मत ,समय ने क्या खेल खेले
गीत ग़ज़लों की गंगा तुमसे ही पाई
गीत ग़ज़लों को गाने लगा आजकल हूँ

जिधर देखता हूँ उधर तू मिला है
ये रंगीनियों का गज़ब सिलसिला है
नाज क्यों ना मुझे अपने जीवन पर हो
तुमसे रब को पाने लगा आजकल हूँ

सपने सजाने लगा आजकल हूँ
मिलने मिलाने लगा आज कल हूँ
हुयी शख्शियत उनकी मुझ पर यूँ हाबी
खुद को भुलाने लगा आजकल हूँ



ग़ज़ल ( सपने सजाने लगा आजकल हूँ)
मदन मोहन सक्सेना

1 टिप्पणी:

  1. सपने सजाने लगा आजकल हूँ
    मिलने मिलाने लगा आज कल हूँ
    हुयी शख्शियत उनकी मुझ पर हाबी
    खुद को भुलाने लगा आजकल हूँ

    बहुत खूब !!
    सुन्दर गजल !!

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