ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा) बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता
हुआ इलाज भी मुश्किल ,नहीं मिलती दबा असली दुआओं का असर होता दुआ से काम लेता हूँ मुझे फुर्सत नहीं यारों कि माथा टेकुं दर दर पे अगर कोई डगमगाता है उसे मैं थाम लेता हूँ खुदा का नाम लेने में क्यों मुझसे देर हो जाती खुदा का नाम से पहले ,मैं उनका नाम लेता हूँ मुझे इच्छा नहीं यारों कि मेरे पास दौलत हो सुकून हो चैन हो दिल को इसी से काम लेता हूँ सब कुछ तो बिका करता मजबूरी के आलम में मैं सांसों के जनाज़े को सुबह से शाम लेता हूँ सांसे है तो जीवन है तभी है मूल्य मेहनत का जितना हो जरुरी बस उसी का दाम लेता हूँ
माता मम्मी अम्मा कहकर बच्चे प्यार जताते थे मम्मी अब तो ममी हो गयीं प्यारे पापा डैड हो गए पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को दही जलेबी हलुआ पूड़ी सब के सब क्यों बैड हो गए गौशाला में गाय नहीं है ,दिखती अब चौराहों में घर घर कुत्ते राज कर रहें मालिक उनके मैड हो गए कैसे कैसे गीत हुये अब शोरनुमा संगीत हुये अब देख दशा और रंग ढंग क्यों तानसेन भी सैड हो गए दादी बाबा मम्मी पापा चुप चुप घर में रहतें हैं नए दौर में बच्चे ही अब घर के मानों हैड हो गए ।
कुर्सी और वोट की खातिर काट काट के सूबे बनते नेताओं के जाने कैसे कैसे , अब ब्यबहार हुए
दिल्ली में कोई भूखा बैठा, कोई अनशन पर बैठ गया
भूख किसे कहतें हैं नेता उससे अब दो चार हुए
नेता क्या अभिनेता क्या अफसर हो या साधू जी
पग धरते ही जेल के अन्दर सब के सब बीमार हुए
कैसा दौर चला है यारों गंदी हो गयी राजनीती अब
अमन चैन से रहने बाले दंगे से दो चार हुए
दादी को नहीं दबा मिली और मुन्ने का भी दूध खत्म
कर्फ्यू में मौका परस्त को लाखों के ब्यापार हुए
तिल का ताड़ बना डाला क्यों आज सियासतदारों ने
आज बापू तेरे देश में, कैसे -कैसे अत्याचार हुए हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई
ख्बाजा साईं के घर में , ये बातें क्यों बेकार हुए
ग़ज़ल (सबकी ऐसे गुजर गयी) हिन्दू देखे ,मुस्लिम देखे इन्सां देख नहीं पाया मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में आते जाते उम्र गयी अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में हर इन्सां की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी अपना हिस्सा पाने को ही सब घर में मशगूल दिखे इक कोने में माँ दुबकी थी , जब मेरी बहाँ नजर गयी दुनिया जब मेरी बदली तो बदले बदले यार दिखे तेरी इकजैसी सच्ची सूरत, दिल में मेरे उतर गयी
किसको आज फुर्सत है किसी की बात सुनने की अपने ख्बाबों और ख़यालों में सभी मशगूल दिखतें हैं सबक क्या क्या सिखाता है जीबन का सफ़र यारों मुश्किल में बहुत मुश्किल से अपने दोस्त दिखतें हैं क्यों सच्ची और दिल की बात ख़बरों में नहीं दिखती नहीं लेना हक़ीक़त से क्यों मन से आज लिखतें हैं धर्म देखो कर्म देखो असर दीखता है पैसों का भरोसा हो तो किस पर हो सभी इक जैसे दिखतें हैं सियासत में न इज्ज़त की ,न मेहनत की कद्र यारों सुहाने स्वप्न और ज़ज्बात यहाँ हर रोज बिकते हैं दुनियाँ में जिधर देखो हज़ारों रास्ते दीखते मंजिल जिनसे मिल जाये वह रास्ते नहीं मिलते
ग़ज़ल (जीबन :एक बुलबुला ) गज़ब हैं रंग जीबन के गजब किस्से लगा करते जबानी जब कदम चूमे बचपन छूट जाता है
बंगला ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है जबानी के नशें में लोग क्या क्या ना किया करते ढलते ही जबानी के बुढ़ापा टूट जाता है
समय के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है समय को गर नहीं समझे समय फिर रूठ जाता है
जियो ऐसे कि औरों को भी जीने का मजा आये मदन ,जीबन क्या ,बुलबुला है, आखिर फुट जाता है मदन मोहन सक्सेना